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तीसरा कंडोम (1)

चित्रा: पंकज दीक्षित

राक्षसी हँसती है.
दर्शक देखता है.

मगर दर्शक वहाँ नहीं देख पाता जहाँ राक्षसी हंसती है. दर्शक सिर्फ टीवी का पर्दा देखता है. दर्शक वहाँ भी नहीं देख पाता जहाँ इस समय एक बड़े से कमरे में एक बड़े भव्य सोफे पर इतिहास अधलेटा बैठा हुआ है. उसके हाथ में टीवी का रिमोट है.

इतिहास साइड टेबुल पर रखे महँगी दारू के गिलास को उठाकर कुछ पलों के लिए अपने ओठों से चिपकाता है फिर गिलास को वापस टेबुल पर रख देता है. इतिहास इस कमरे में तृतीय पुरुष है. प्रथम पुरुष सामने बैठा हुआ वह वह चैनल हैड है जिसने इस समय घुटनों तक आती हुई हाफ पैन्ट पहन रखी है. कमर से ऊपर का भाग निर्वस्त्रा है. वह अपने सोफे पर आराम से कुहनी टिकाये बैठा है. द्वितीय पुरुष एक दूसरे चैनल का न्यूज डाइरेक्टर है. उसने भी वैसी ही हाफ पैन्ट पहन रखी है. मगर उसने छिछली-सी बनियान भी शरीर पर डाल रखी है जिसमें से उसकी छाती के बाल और उसके शरीर की गठान एक साथ बाहर झाँक रहे हैं.

इतिहास प्रायः ऊलजुलूल सोचता है. वह द्वितीय पुरुष के चेहरे पर अपनी नजर टिकाता है. एक खयाल उसके भीतर हू  तू-तू करने लगता है... यह आदमी समाचार संपादक या समाचार निदेशक क्यों नहीं है. न्यूज डाइरेक्टर क्यों है? फिर समांतर खयाल उभरता है... उसकी काम वाली सिर्फ ‘संतो’ क्यों है और उसके चैनल की एंकर ‘मैडम’ क्यों है... जहाँ कोई पिटती हुई भाषा छोटेपन का अहसास कराती है वहाँ उसे चढ़ती हुई भाषा से स्थानांतरित करके भारी भरकम वांछित प्रभाव पैदा किया जा सकता है. जो बात समाचार संपादक में हल्की और छोटी लगती है वही न्यूज डाइरेक्टर में घुसकर भारी भरकम और कद्दावर हो जाती है.

द्वितीय पुरुष घड़ी देखता है.
उसके घड़ी देखने को प्रथम पुरुष देखता है. प्रथम पुरुष मुस्कुराता हैµ ”दीक्षा के आने में अभी आधा घंटा है.“
द्वितीय पुरुष न झेंपता है न सकुचाता है, वह भी सिर्फ मुस्कुराता है. वह अपने गिलास में से एक लंबा घूंट गटकता है और एक बेहया नजर इतिहास की आँखों में फेंक देता है.

इतिहास अभी तक इतनी बेशर्मी से या बेतकल्लुफी से मुस्कुराना नहीं सीख पाया है. वह अपने सामने बैठे पुरुषों की मुस्कुराहटों के पीछे छुपी सत्ता और उसके दर्प को सूँघता है. क्या इन लोगों को सचमुच कोई डर संकोच नहीं सताता? क्या इन्हें सचमुच कोई घबराहट नहीं होती? अपने इस तरह के काम को लेकर इनके मन में कोई अनैतिकता बोध उत्पन्न नहीं होता? इनके मन में ही क्यों इनके पास जो दीक्षा आ रही है क्या उसके मन में भी कोई संकोच, कोई भय, कोई अपराधबोध नहीं होगा? अगर होता तो वह यहाँ आती ही क्यों और क्यों ये लोग इतनी बेफिक्री से उसका इंतजार करते?... और वह स्वयं इनके जैसा बेफिक्र क्यांे नहीं हो पा रहा?  क्या वह कायर है या कुछ और?

इतिहास फिर अपने गिलास मेें एक घूंट लेकर गिलास टेबुल पर रख देता है. तली हुई मछली का एक टुकड़ा मुँह में रखता है तो मुँह में काँटे की उपस्थिति से सतर्क हो जाता है. बीच-बीच में इस तरह सतर्क होना उसकी फितरत में शामिल है. जब वह सतर्क होता है तो उसके दिमाग का टेप कभी रिवाइंड होने लगता है तो कभी फास्ट फाॅरवर्ड.

टेप रिवाइंड होकर एक पुराने फ्रेम पर रुक गया है. इस फ्रेम में कालेज के दिन फ्रीज हो रहे हैं... वह और उससे एक साल सीनियर यह प्रथम पुरुष कालेज की छात्रा राजनीति में समाजवाद का झंड़ा उठाए हुए हैं... वे जमकर बहस करते हैं, कभी लोहिया से शुरू होकर माक्र्स तक पहुँच जाते हैं तो कभी गाँधी से शुरू होकर बुद्ध तक तो कभी देश के बंटवारे से लेकर सिकंदर के हमले तक. वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था हमेशा उनकी गालियों पर होती है... वे लड़कियों पर भी फिकरे फेंकते हैं पर उनमें छिछोरापन नहीं होता. वे औरत की आजादी पर घंटों बात करते हैं... समय हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता हैµ महानुभाव अब खाने का वक्त है, अब पढ़ने का वक्त है, अब सोने का वक्त है... मगर किसे ध्यान रहता है.
वे अपनी भूमिकाएँ तय कर रहे हैं... कोई राजनेता बनना चाहता है. कोई लेखक बनना चाहता है तो कोई पत्राकार, कोई प्रेमचंद को मात देना चाहता है तो कोई महावीर प्रसाद द्विवेदी और गणेश शंकर विद्यार्थी को. सबके अपने-अपने आदर्श अपने-अपने लक्ष्य. इन आदर्शों में कभी-कभी सरदार भगतसिंह भी जुड़ जाते हैं तो कभी सुभाष बोस तो कभी-कभी माओ, चारू मजूमदार और जंगल सांथाल भी... जो देश की इस आजादी की आजादी बताने की कोशिश करता है वे उस पर पिल पड़ते हैं... वे पूँजीवाद से लड़ना चाहते हैं... जो आई ए एस बनना चाहता है वह भी, जो संपादक बनना चाहता है वह भी, जो चुनाव लड़ना चाहता है वह भी.

प्रथम पुरुष इतिहास की ओर देख रहा है.
दोनों की आँखें मिलती हैं. टेप फास्ट फारवर्ड होता है और फ्रेम में फिर बड़ा कमरा आ जाता है. प्रथम पुरुष पूछता है, ”तू रुकेगा कि जाएगा?“

इतिहास अपनी तरफ उछाले गये इस तटस्थ से सवाल को पूरी तटस्थता से ग्रहण करता है. अगर वह चला जाएगा तो भी इन लोगों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, रुक जाएगा तो भी ये लोग कोई बाधा महसूस नहीं करेंगे. सवाल का जवाब दिये बगैर वह चुपचाप दारू की चुस्कियाँ लेता रहेगा तो भी इनमेें कोई भी दुबारा सवाल करने का दबाव महसूस नहीं करेगा. इन लोगों से उसका केवल कामकाजी औपचारिक रिश्ता नहीं है. चैनल में भले ही वह प्रथम पुरुष के साये में हो लेकिन उनकी अंतरंगता कालेज के दिनों जैसी ही है. वे एक दूसरे से छिपने-छुपाने का खेल नहीं खेलते.

”यार इतिहास,“ द्वितीय पुरुष अनायास कहता है, ”तू अभी तक प्रोफेशनल नहीं हो पाया.“
इतिहास संबोधन से इतिहास चैंकता है. पहली बार किसने उसे यह संबोधन दिया था, उसे याद नहीं आता. शायद चैनल के ही किसी लड़के या लड़की ने. अब तो प्रथम पुरुष भी कभी-कभी उसे इसी नाम से बुला बैठता है. वह अपनी बातचीत में अक्सर ऐतिहासिक उद्धरणों को घसीट लाता है, शायद इसलिए. शायद इसलिए भी कि वह अपने आसपास के लोगों की जीवन गाथाओं में पैठने और उनकी खोजबीन करने का लती है.  आपसी बातचीत में वह अक्सर कह बैठता है... मुझे उसका पूरा इतिहास मालूम है. व्यक्तिगत इतिहासों में उसकी खास रुचि ही उसके लिए इस संबोधन की वजह बनी है...

द्वितीय पुरुष ने यह बात पहली बार नहीं कही है. वह कहता ही रहता है. जब भी वह ऐसा कहता है टेप तेज गति से आगे-पीछे होने लगता है. वह अपना काम अच्छी तरह कर लेता है, अच्छी तरह गेस्ट-कार्डिनेशन कर लेता है, कोई नया मुद्दा उठता है तो अपने प्रोग्राम का कंटेट तुरंत तय कर लेता है, किस विषय का कौन अच्छा जानकार है यह वह जानता है, किन लोगों के विरोधी विचारों से डिबेट गरमाएगी उसे अच्छी तरह मालूम है, उसकी प्रोग्रामिंग हमेशा हिट रहती है, स्टूडियो डाइरेक्टर भी अक्सर उससे सलाह ले लेता है... मगर द्वितीय पुरुष की नजर में वह प्रोफेशनल नहीं है. प्रोफेशनल प्रथम पुरुष है... द्वितीय पुरुष है. मालिक का सिर्फ घोड़ा नहीं, चेतक बन जाना प्रोफेशनल होना है. मालिक की पुतली फिरी नहीं तब तक चेतक मुड़ जाता था... इतना ही नहीं इसके अलावा भी बहुत कुछ... यह बहुत कुछ उसे हमेशा दुविधा में डाले रखता है. 
उसने हाथ में लगे रिमोट का बटन दबा दिया है. चैनल पर प्रोमोे चल रहा है... कैसा होगा आपका भविष्य, कौन से ग्रह दे सकते हैं आपको कष्ट... कौन से रत्न कर सकते हैं आपके अनिष्टकारी ग्रहों को शांत... कैसे कर सकते हैं आप अपने संकट दूर... कैसे पा सकते हैं आप अपना मनचाहा भविष्य... उपाय बताएंगे. विश्वविख्यात आचार्य, ज्योतिषविद श्री श्री धर्मपति शास्त्राी जी महाराज... सिर्फ हमारे चैनल पर... सुबह सात बजे.
विंडो से निकलकर शास्त्राी का घुटा हुआ मुंड, उभरी हुई तोंद और चमक चिचोया चेहरा फुल फ्रेम बनकर पूूरे पर्दे पर छप गया है. इतिहास शास्त्राी की आँखों में देखता है. इन आँखों में उसे बेहद काइंयां किस्म का जन्तु बैठा नजर आता है...
प्रथम पुरुष पर्दे की ओर देखता हैµ अबे ये फ्राड तुम्हारे चैनल में. प्रथम पुरुष ने यह बात द्वितीय पुरुष से कही है.

”जब से आया है, मार्निंग शो की टी आर पी बढ़ गयी है.“ द्वितीय पुरुष ”फ्राड“ को भिनकती मक्खी की तरह छिटक देता है, सीधे प्रोफेशनल मलाई की बात करता है.
”कितने दिये तुम्हारे यहाँ?“ प्रथम पुरुष पूछता है.
”पता नहीं, सीधे बिग बाॅस से जुगाड़ लगाकर आया है. “ द्वितीय पुरुष बेहद तटस्थ और असंपृक्त आवाज में कहता है.
इतिहास इस फ्राड शास्त्राी की अनेक हरमजदगियों से वाकिफ है. ऐसे लोग चैनल पर आने के लिए मंत्रियों तक की सिफारिश ले आते हंै, जमकर सौदेबाजी करते हैं, अपना व्यापार बढ़ाते हैं... आशंकाग्रस्त दिमागों का भयादोहन करते हैं... पैसा पाते हैं, प्रसिद्धि पाते हैं... उसके मुँह से निकलता है, ”इन लोगों को बढ़ावा देकर हम लोग अच्छा नहीं कर रहे हैं...“

”इसीलिए तो मैं कहता हूँ तू कभी प्रोफेशनल नहीं हो सकता... अबे हम अच्छा-बुरा तय करने वाले कौन हंै... मार्केट जो मांगेगा हम वही तो देंगे... अब इन ज्योतिषियों का खासा मार्केट है तो हम क्या करें...“
राक्षसी हंसती है. एक सहज हँसी.
इतिहास दर्शक की तरह देखता है.

पर्दे पर कामर्शियल ब्रेक उतर आया है. एक शहंशाह सच-सच बोलता हुआ मसालों के रथ पर बैठकर निकल गया है. एक टायर सारे देश को मजबूर कर गया है. एक सीमेंट ब्रांड राष्ट्रीय एकता स्थापित कर गया है. एक चावल सार्वजनिक स्वास्थ्य की गांरटी कर गया है. एक शिक्षा व्यापारी संस्था पूरे देश के रूपांतरण की गारंटी कर गयी है. एक साबुन पूरे देश को स्वस्थ कर गया है.

इतिहास ने रिमोट का बटन दबा दिया है.

एक स्वामी भारत का कायाकल्प कर रहा है. कैंसर हो या एड्स, सबके ठीक होने का पक्का वादा कर रहा है. भारतीय संस्कृति के विस्थापित गौरव को पुनः स्थापित करने के अपने संकल्प में लोगांे का सहयोग माँग रहा है...
”हजार करोड़ से ज्यादा का बिजनेस है इस स्वामी का,“ प्रथम पुरुष टिप्पणी करता है.
”केवल पाँच साल में किया है इसने ये चमत्कार,“ द्वितीय पुरुष प्रति टिप्पणी करता है. फिर जैसे उसे कुछ याद आता है. ”गुजराती संत के कुछ लोग हमारे पास आये थे. स्वामी के खिलाफ उनके पास बहुत से कागजी प्रमाण थे.“
”क्या चाहते थे?“ इतिहास ने सवाल किया है.

”चैनल पर खबर चाहते थे. एक करोड़ तक देने को तैयार थे. पर हमने मना कर दिया.“
इतिहास को याद आता है कि बाद में स्वामी के बारे में एक नेगेटिव खबर एक टटपुंजिया चैनल पर चली थी. शायद वे एक करोड़ उधर स्थानांतरित हो गये थे. इन संतांे, स्वामियों, बाबाओं के आपसी झगड़े भी ठेकेदारी के झगड़ों से कम नहीं होते, वह सोचता है. फिर उसके दिमाग का टेप रिवाइंड होकर एक बाबा के फ्रेम पर अटक जाता है... ”स्वामी जी आप टैक्स चोरों, तस्करों, नेताओं, व्यापारियों के दिमाग का इलाज क्यों नहीं करते...ये लोग ज्यादा बीमार हैं. ज्यादा बीमारियाँ फैला रहे हैं...“
”हम तो सबको सद्मार्ग दिखाते हैं, सबको नीरोग बनाते हैं.“

”छोटी-मोटी शारीरिक व्याधियों को दूर करने से समाज थोड़े ही स्वस्थ होता है... पर आप भी क्या करें, बड़ी व्याधियों का इलाज करने लगेंगे तो आपको पैसा कहाँ से मिलेगा.“ वह बाबा पर एक नैतिक हमला जैसा करता है.

अगले दिन उसे मालूम होता है कि बाबा ने बिग बाॅस से उसकी शिकायत कर दी है. प्रथम पुरुष किसी तरह मामले को संभालता है और उसे कसता हैµ उल्लू के पट्ठे, मजाक बराबर वालों से किया जाता है, उनके साथ नहीं जो मालिक के साथ उठते-बैठते हैं.
”मैंने सच कहा था, मजाक नहीं किया था,“ वह सफाई देता है.
”अबे साले, मीडिया में सच से बड़ा कोई दूसरा मजाक है क्या! तुझे इतने साल हो गये, तू ये छोटी-सी बात कब समझेगा.“

इतिहास अक्सर यहाँ द्वंद्वात्मक संकट से घिर जाता हैµ वह सच और मजाक के मीडिया विकसित रिश्ते के साथ सीधा तालमेल नहीं बिठा पाता है.
फ्रेम फिर कमरे पर फ्रीज हो जाता है. समाचार चैनल चल रहा है.
एक गोली गर्मधारण के तनाव से मुक्ति दिला रही है, एक कम्प्यूटर दुनिया की सारी सफलता आपके चरणों में रख रहा है, एक मोबाइल फोन सारी दुनिया को आपसे जोड़ रहा है...

पूरा चैनल इन्हीं का विज्ञापन  है, इतिहास सोचता है.
वह रिमोट का बटन फिर दबा देता है.
इस चैनल पर चुनाव सुधार का पैनल बैठा हुआ है. एक बुद्धिजीवी किस्म का व्यक्ति चुनाव में काले धन के प्रयोग पर जोर-शोर से अपने तर्क रख रहा है. बगल में बैठा एक नेता मंद-मंद मुस्कुरा रहा है. बुद्धिजीवी कुछ चिढ़ता-सा दिखता है. स्टूडियो का कैमरा उसके चेहरे को नहीं उसकी झंुझलाहट को पकड़ने की कोशिश कर रहा हैµ अगर कालाधन नहीं रुकेगा तो कोई चुनाव सुधार नहीं होगा...
”साला बेवकूफ.“ प्रथम पुरुष बोलता है.
”कौन?“ इतिहास पूछता है.
प्रथम पुरुष बिना सवाल पर ध्यान दिये रौ में बोल रहा है,
”चार किताबें पढ़कर बहस करने चले आते हैं. दे डोन्ट अंडरस्टेंड प्रेक्टिकल पाॅलिटिक्स. आई रियली पिटी दीज पीपुल.

द्वितीय पुरुष कहता है, ”सुना है तुम्हारे चैनल ने इस चुनाव में अच्छा पैसा पीटा है. ब्यूरो और इंडिबिजुअल रिपोर्टर्स को ठेके दे दिये गये थे... आई मीन टारगेट“
”आधा पैसा तो बीच में रिपोर्टर ही खा गये. एक बाइट सौ में बेची तो यहाँ पचास दिये, एक स्टोरी चलवाने के हजार दिये तो वहाँ दो हजार बसूले...“ प्रथम पुरुष मुस्कराते हुए बताता है जैसे कि यह कोई मामूली बात हो.

इतिहास का टेप थोड़ा रिवाइंड होता है... फ्रेम में उसके यहाँ का एक लोकल रिपोर्टर है और एक लोकल नेता. लोकल नेता रिपोर्टर की शिकायत करने आया है कि वह कवरेज के लिए पैसा माँग रहा है. रिपोर्टर नेता को न्यूज रूम के बाहर ही धर लेता है...तुम किसके लिए चुनाव लड़ रहे हो? जीत के जो पैसा बनाओगे उसे क्या हमें दे जाओगे? हमने यहाँ दानखाता नहीं खोल रखा है...चैनल पैसों से चलता है...तुम्हारा चेहरा हम फोकट में क्यों दिखाएं...

इनपुट हैड रिपोर्टर को टोकता है तो रिपोर्टर उस पर चढ़ जाता है...बिना पैसे लिये इन नेता जी को कवर कर दिया तो आप लोग ही बोलोगे मैं बीच में खा गया. ये लो खुद बात कर लो नेताजी से...मुझे क्या है, मैं पूरा पैकेज बनवा देता हूँ...नेता शायद पहली बार राजनीति समझा है, वह चुपचाप खिसक लेता है.

इतिहास प्रथम पुरुष की ओर देखता है जिसने अभी-अभी एक सवाल द्वितीय पुरुष की ओर उछाला है ”तुम्हारे मालिक की डील का क्या हुआ? मिनिस्टर से उसकी मुलाकात तो हो गयी थी.“

”हाँ आलमोस्ट हो गयी है,“ द्वितीय पुरुष सहज-सी जानकारी देता है, ”थोड़ा-सा पेपर वर्क रह गया है. जमीन हमें अॅलाट हो जाएगी.“
इतिहास सतर्क होता है ‘हमें’ पर. द्वितीय पुरुष जो चैनल हेड भी नहीं है खुद को अपने मालिक और उसकी कंपनी से मालिकाना श्रेणी में जोड़ रहा है. अगर इसे यहाँ से पिछाई पर लात मारकर निकाल दिया गया तो यह दूसरे मालिक के साथ भी इसी शैली में जा जुड़ेगा.

दूर कहीं राक्षसी हँस रही है.
इतिहास नहीं देख पाता. वह दर्शक बना हुआ है.
द्वितीय पुरुष फिर घड़ी पर नजर डालता है.

प्रथम पुरुष फिर उसके इसे देखने को देख लेता है, ”क्यों बेचैने हो रहा है. आ जाएगी.“
”अगर गच्चा देे गयी तो.“ द्वितीय पुरुष ने यह बात यूं ही  अंदाज में कही है जैसे वह भीतर खाते अच्छी तरह जानता हो कि किस एंकर की हिम्मत जो चैनल हेड को चकमा देकर निकल जाये.
इतिहास बटन दबाता है.
एक सुपर फास्ट चैनल पर्दे पर है.

सिंक खत्म होते ही एंकर का चेहरा उभरता है... एक बार फिर आपका स्वागत है...
इतिहास का टेप तत्काल एक पुराने फ्रेम पर फ्रीज हो जाता है. यह खूबसूरत एंकर आकांक्षी लड़की उसके चैनल में चक्कर काट रही है... कभी चैनल हेड के पास तो कभी आउटपुट एडीटर के पास तो कभी एचआर मैनेजर के पास... सबकी नजर उस पर है, पर पहल... उसे इधर से उधर दौड़ाया जा रहा है... वह खीजती है, परेशान होती है और एंकर इंचार्ज के आगे फट पड़ती है... ”आप बताते क्यों नहीं मुझे कहां जाना है, किसके पास जाना  है, घर पर जाना है या किसी होटल में जाना है... गुपचुप इशारे क्यों करते हैं... साफ-साफ बताइये मुझे किसके साथ जाना है... मुझे परेशान क्यों कर रहे हैं...“
चुनौती इतनी खुली होती है कि इसे खुले में स्वीकार करने की हिम्मत कोई भी नहीं दिखा पाता. अब यह लड़की सुपरफास्ट में जमी हुई एंकरिंग कर रही है.
इतिहास के टेप में एक और फ्रेम फ्रीज होता है...

वह सीधे उसी के पास चली आती है. वह एंकरिंग कर रही है और वह अच्छी तरह जानती  है कि चैनल हेड उसका दोस्त है और कभी-कभी उसकी बात मान भी लेता है. वह कहती है, ”यार मुझे प्राइमटाइम एंकरिंग दिलवा दो... तुम कहो तो तुम्हारे बच्चे की माँ बनने को भी तैयार हूँ.“

यह प्रचलित-सा जुमला है, शायद मजाक में कहा गया है, मगर वह हिल जाता है. कहता है, ”ऐसी फालतू बातें मुझसे मत किया करो.“
यह दीगर बात है  कि इस समय चैनल में वह प्राइम टाइम एंकरिग कर रही है. पुरुष एंकर खीजते-खिजलाते हंै, यह उनका काम है, करें.
द्वितीय पुरुष को चढ़ रही है. उसे देर होना शायद खलने लगा है. वह पूछता है, ”हू इज दिस युअर न्यू दीक्षा.“

जाहिर है कि द्वितीय पुरुष ने अभी तक नयी दीक्षा को देखा नहीं है. अगर दीक्षा का प्रायोजन उसने किया होता तो ऐसा ही सवाल प्रथम पुरुष उससे कर सकता था.
इतिहास के दिमाग में एक सुन्दर सी तेज चाल लड़की की छवि उभरती है. उसने कई बार उसे प्रथम पुरुष के चेम्बर में देखा है. कई बार उससे संवाद किया है. कई बार उसे कुरेदने की कोशिश की है... कई बार उसके मन में इस लड़की के प्रति सहानुभूति पैदा हुई है... और अब वह लड़की नयी दीक्षा है...

दीक्षा लड़की का नाम नहीं है, यह हर उस लड़की का नाम है जो एंकर बनने के लिए या एंकर होते हुए मनचाहा स्लाॅट पाने के लिए किसी भी प्रभावशाली के बिस्तर तक जा पहुँचती है. पहले वह दीक्षा लेती है, फिर अपनी मनचाही जगह पर पहुँच जाती है.

वह पूछता है, ”व्हाई डिड यू चूज दिस प्रोफेशन?“
वह कहती है, ”आॅनेस्टली सर, मीडिया इज माई पैशन.“
वह पूछता है, ”व्हाई इलेक्ट्राॅनिक न्यूज मीडिया?“
वह कहती है, ”बिकाॅज इट गिब्स यू मच बैटर चांस टू एक्सप्रेस एंड शो युअरसेल्फ.“
वह कहता है, ”तुम्हें नहीं लगता कि यहाँ बहुत से कंप्रोमाइज करने पड़ते हैं?“
वह सीधा जवाब देती है, ”फ्रेंकली सर, कंप्रोमाइजेज आर एवरीव्हेअर. इफ यू वांट टू बिकम समथिंग, यू कान्ट अवाइड देम...“
वह अपनी बात थोड़ा और स्पष्ट करना चाहता है. ”एक्चुअली यू आर नाॅट गेटिंग माई प्वाइंट“
वह कहती है, ”ब्हाटएवर सर आई एम हीयर टू स्टे इन दिस प्रोफेशन. टु बिकम एन एंकर इज माई चैरिस्ड ड्रीम...“

उसके मन में पल भर के लिए तरस पैदा होता है, मगर वह तुरंत स्वयं को असहाय महसूस करने लगता है. 10 जिनके बाप, भाई या पति कहीं सत्ता में नहीं है, या कहीं बड़े अधिकारी नहीं है,  या जो सीधे मालिक या मालिक के दोस्त-रिश्तेदारों के परिवार से नहीं है, एंकर-संघर्ष उन्हीं का होता है. कुछ वे भी अपवाद हैं जो अपनी प्रतिभा क्षमता पर भरोसा रखती हंै और इसी बल पर वे चैनल की जरूरत बन जाती हैं. उन्हंे अलग से किसी दीक्षा की जरूरत नहीं होती...

वह उस नयी  लड़की को तेज तर्रार लड़कियों की जमात में शामिल होते हुए देखता है. एक दिन स्मोकिंग जोन में सिगरेट के कश लेती हुई दिखती है. चैनल की प्रमोशन पार्टी में उसके हाथ में वीयर का गिलास दिखाई देता है. डांस फ्लोर पर वह कुछ धुत्त जांबाजों के हाथ अपनी कमर पर लपेटे थिरकती-सी दिखती है. उसका संकोच छिटककर इधर-उधर बिखर रहा है... और वह अकेली नहीं है... व्यूरो है, डेस्क है, असाइनमेंट है, आउटपुट है, इनपुट है, स्टूडियो है, कैमरा है, डिप्टी बाॅस है, बाॅस है... वह भी है.........
 
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